पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा का शुक्रवार को कोरोना संक्रमण की वजह से निधन हो गया है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार तबीयत खराब होने की वजह से पिछले कुछ दिनों से एम्स ऋषिकेश में इलाज चल रहा था। लेकिन आज 12 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। 9 जनवरी 1927 को सिलयारा, उत्तराखंड जन्में सुंदरलाल बहुगुणा एक प्रसिद्ध पर्यावरणविद् और चिपको आंदोलन के प्रमुख नेता थे। पर्यावरण की सुरक्षा के लिए उन्होंने चिपको आंदोलन से लेकर किसान आंदोलन तक का सफर तय किया।
13 वर्ष की उम्र में शुरू हुआ राजनीतिक सफर
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अनुयायी बहुगुणा ने 13 वर्ष की उम्र में ही राजनीतिक सफर की शुरुआत कर ली थी। वर्ष 1949 में मीराबेन व ठक्कर बाप्पा से बहुगुणा की मुलाकात हुई। यहीं से उनका आंदोलन का सफर शुरू हुआ। मंदिरों में दलितों को प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए प्रदर्शन करना शुरू किया। समाज के लोगों के लिए काम करने हेतु बहुगुणा ने 1956 में शादी होने के बाद राजनीतिक जीवन से संन्यास लेने का निर्णय लिया और अपनी पत्नी विमला नौटियाल के सहयोग से बहुगुणा ने पर्वतीय नवजीवन मण्डल की स्थापना की।
1970 में की चिपको आंदोलन शुरुआत
सुंदरलाल बहुगुणा का मानना था कि पेड़ों को काटने की अपेक्षा उन्हें लगाना हमारे जीवन के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए उन्होंने 1970 में गढ़वाल हिमालय में पेड़ों को काटने के विरोध में आंदोलन की शुरुआत की। इस आंदोलन का नारा – “क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार” तय किया गया था। वर्ष 1971 में शराब दुकान खोलने के विरोध में सुन्दरलाल बहुगुणा ने सोलह दिन तक अनशन किया।
15 साल तक लगा पेड़ो को काटने पर रोक
यह विरोध प्रदर्शन पूरे देश में फैल गया। 26 मार्च 1974 में चमोली जिला में जब ठेकेदार पेड़ो को काटने के लिए पधारे तब ग्रामीण महिलाएं पेड़ो से चिप्पकर खड़ी हो गईं। परिणामस्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 15 साल के लिए पेड़ो को काटने पर रोक लगा दिया। चिपको आंदोलन की वजह से बहुगुणा विश्व में वृक्षमित्र के नाम प्रसिद्ध हो गए।
1981 से लेकर 2001 तक इन पुरस्कारों से किया गया सम्मानित
पर्यावरण के क्षेत्र में बहुमूल्य काम करने के लिए सुन्दरलाल बहुगुणा को वर्ष 1981 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा था। किंतु उन्होंने यह पुरस्कार लेने से मना कर दिया। उनका कहना था कि जब तक पेड़ कटते रहेंगे, तब तक मैं इस पुरस्कार को स्वीकार नहीं कर सकता। इसके बाद –